दृढ़ निश्चय और संकल्प से हम कठिन से कठिन कार्य कर सकते हैं ।
हजारों साल पहले पांडव और कौरव राजकुमारों के गुरु द्रोणाचार्य थे । वे जाति के ब्राह्मण थे और ऊँचे वंश के राजकुमारों को शिक्षा देते थे । द्रोणाचार्य धनुष चलाने की शिक्षा देने में बड़े प्रवीण थे । उनका प्रिय शिष्य अर्जुन था , जिसे वे भारत का सबसे बड़ा धनुर्धर बनाना चाहते थे ।
एक दिन एक लड़का गुरु द्रोणाचार्य के पास आया और प्रणाम करके बोला , " गुरुदेव , मैं आपका शिष्य बनना चाहता हूँ । आपसे धनुष युद्ध की विद्या सीखना चाहता हूँ । द्रोणाचार्य ने पूछा , " बालक , तू किस जाति का है ? तेरा कौन सा वंश है ? और तू कहाँ का राजकुमार है ? "
बालक ने हाथ जोड़कर कहा , “ देव , मैं राजकुमार नहीं हूँ । मैं तो वन में रहने वाले साधारण बहेलिये का पुत्र हूँ । मेरे मन में धनुष विद्या सीखने की तीव्र इच्छा है । इसलिये आपकी सेवा में आया हूँ । "
उसकी बात सुनकर द्रोणाचार्य बोले , " तू नीच जाति में जन्म लेकर भी मेरा शिष्य बनना चाहता है ? देख , मैं नीच जाति के बालकों को शिक्षा नहीं देता । क्षत्रिय राजकुमार ही मेरे शिष्य हो सकते हैं । " बालक को बड़ा बुरा लगा । उसने विनय पूर्वक कहा , " गुरुदेव , विद्यादान में क्या छोटा और क्या बड़ा ? आपकी दृष्टि में तो सब बालक समान होने चाहिये । आप मेरी परीक्षा लेकर देख लीजिये कि मैं आपका शिष्य होने के योग्य हूँ या नहीं ।"
द्रोणाचार्य ने तनिक रोष से कहा , " नहीं , मैं तुझे अपना शिष्य नहीं बनाऊँगा । जा , अपने घर लौट जा । "
बालक बहुत दुःखी मन से अपनी झोपड़ी में लौट आया । कई वर्ष बाद एक दिन द्रोणाचार्य अपने प्रिय शिष्य अर्जुन के साथ वन में विचरण कर रहे थे । अर्जुन तव पूर्ण युवा हो गया था । उसके समान धनुष युद्ध में निपुण दूसरा कोई नहीं था ।
धूमते - घूमते उन्होंने देखा कि एक कुत्ता भागते हुए आ रहा है , जिसके मुख में अनेक बाण भरे हुए हैं । परन्तु कुत्ता धायल नहीं है । गुरु शिष्य दोनों को आश्चर्य हुआ कि ऐसा कौन चतुर वीर है , जिसने कुत्ते के मुख में अनेक बाण भर दिये हैं । द्रोणाचार्य ने कहा , " इस वन में अवश्य ही कोई बड़ा धनुर्धर निवास करता है । जिस ओर से यह कुत्ता आया है , उसी ओर चलो , शायद वह वहाँ मिल जाय । "
थोड़ी दूर जाकर उन्होंने देखा कि निर्जन वन के मध्य में एक तरुण बाण चलाने का अभ्यास कर रहा है । द्रोणाचार्य ने पूछा , " युवक , क्या तूने इस कुत्ते के मुख को बाणों से भर दिया है ? " उसने कहा , " हाँ गुरुदेव , वह यहाँ भौंक रहा था । मैंने उसका मुँह बंद करने के लिए यों ही कुछ बाण डाल दिये थे । " द्रोणाचार्य उसकी कुशलता से बहुत चकित हुए और पूछा , " युवक वह कौन महान गुरु है , जिसका तुझ जैसा योग्य शिष्य है ? "
उस युवक ने कहा , गुरु द्रोणाचार्य हैं । " यह सुनकर द्रोणाचार्य ने रोष से कहा , " तू झूठ बालता है । मैंने कभी तुझे न अपना शिष्य बनाया और न तुझे मैने बाण विद्या सिखाई ।
" उस युवक ने कहा , “ बह सच है कि आपने मुझे शिष्य नहीं माना । परन्तु मैंने तो मन में आपको ही गुरु मान लिया है । आपको याद होगा कि कुछ वर्ष पहिले मैं आपके पास बाण विद्या सीखने के लिए गया था , परन्तु
आपने मुझे यह कहकर कि मैं नीच बहेलिया हूँ , अपना शिष्य बनाने से इंकार कर दिया । परन्तु मैंने मन में दुद निश्चय किया था कि मैं आपको ही गुरु मानूंगा और अभ्यास करके देश का सबसे बड़ा धनुर्धर बनूंगा । मैने लौटकर आपकी मिट्टी की मूर्ति बनाई और उसे सामने रखकर मैं बाण चलाने का अभ्यास करने लगा । वह देखिये सामने आपकी मूर्ति रखी है । "
अर्जुन और द्रोणाचार्य ने देखा कि वास्तव में उगा उत्साही लड़के ने द्रोणाचार्य की मूर्ति के सामने अभ्यास करके अर्जुन से भी अधिक योग्यता प्राप्त कर ली थी । द्रोणाचार्य के मन में बड़ी हलचल मच गईं । अर्जुन को उन्होंने स्वयं बाण विद्या सिखाई थी , परन्तु अर्जुन से भी बढ़ गया यह बहेलिया , जो उनकी मूर्ति के सामने बिना किसी शिक्षा के स्वयं अभ्यास करता रहा ।
उन्होंने अर्जुन से कहा था कि मैं तुझे भारत का सबसे बड़ा धनुर्धर बनाऊँगा । पर उनकी बात अब झूठी पड़ रही थी । उन्होंने थोड़ी देर विचार किया और फिर वे उस युवक से बोले , " वीर युवक , मुझे बड़ी प्रसन्नता है कि मेरा शिष्य इतना योग्य है । मैं तुझे अपना शिष्य मानता हूँ , परन्तु तूने अभी तक गुरु दक्षिणा तो दी नहीं । "
उस युवक ने कहा , " गुरुदेव , गुरु दक्षिणा में आपको जो चीज चाहिये , मुझसे कहिये । मैं आपको दूंगा । " द्रोणाचार्य ने कहा , " मैं जो मागूंगा , वही देगा ? "
उस युवक ने निर्भयता से कहा , " हाँ गुरुदेव , मैं वचन देता हूँ कि आप जो चाहेंगे , वही दूंगा ।
द्रोणाचार्य ने कहा , " तो मुझे तुम्हारे दाहिने हाथ का अंगूठा चाहिये । " वह युवक यह सुनते ही सहम गया । वह समझ गया कि मेरा अँगूठा कटवाकर द्रोणाचार्य मुझे बाण चलाने के अयोग्य बना देना चाहते हैं । परन्तु वह वचन का पक्का था । उसने तुरंत छुरी से अपना अंगूठा काटा और द्रोणाचार्य की ओर बढ़ा दिया । द्रोणाचार्य और अर्जुन यह देखकर चकित रह गये ।
उस युवक का नाम एकलव्य था । उसकी वीरता , दृढ़ निश्चय और गुरु भक्ति के कारण उसका नाम संसार में अमर हो गया ।
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